बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र
अध्याय - 6
गुप्त काल
(Gupta Period)
प्रश्न- गुप्त काल का परिचय दीजिए।
उत्तर -
गुप्त काल (Gupta Period) - गुप्त वंश के उदय से भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग का उदय हुआ। गुप्त वंश की स्थापना राजा श्री गुप्त ने की थी, जिनका काल 275- 300 ई. के मध्य निश्चित किया गया है। उसके बाद उनका पुत्र घटोत्कंच गुप्त और उसके उपरान्त चन्द्रगुप्त प्रथम शासक बने। सम्राट् चन्द्रगुप्त ने 'गुप्त सम्वत्' चलाया जिसका प्रारम्भ 26 फरवरी 320 ई. में हुआ। उसके पश्चात् विजयी सम्राट समुद्रगुप्त एवं रामगुप्त के बाद चन्द्रगुप्त द्वितीय 375-414 ई. गुप्त राज्य के शासक बने रहे। उसके बाद कुमारगुप्त, पुरुगुप्त, नृसिंहगुप्त, बालादित्य, कुमार गुप्त द्वितीय, बुद्धगुप्त और भानुगुप्त के काल तक लगभग 510 ई. तक गुप्त शासकों की परम्परा बनी रही। यह शासक हिन्दू धर्म के अनुयायी थे, परन्तु बौद्ध धर्म के प्रति उदार थे।
गुप्त सम्राट साहित्यप्रेमी, कला तथा शिल्पानुरागी सम्राट थे तथा वे स्वयं कलाओं में निपुण थे। समुद्रगुप्त स्वयं एक वीणावादक था, जिसका प्रतीक उसके सिक्कों पर अंकित वीणावादक रूप वाली छवि है। वास्तु तथा शिल्प के क्षेत्र में गुप्त युग बहुत महान था। झांसी के देवगढ़ मन्दिर एवं कानपुर के भीतरगाँव मंदिरों की पुण्य मूर्तियाँ इस युग के उन्नत शिल्प का प्रमाण हैं। इस युग की कला शास्त्रीय विधान पर आधारितं है। अजन्ता की श्रेष्ठ कृतियाँ इस काल में बनाई गईं। गुप्त राजाओं के समय शिल्प एवं कला चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई थीं। इस युग में साहित्य और कला का अप्रतिम विकास हुआ।
स्तूप तथा गुहा स्थापत्य - गुप्त सम्राटों के राज्यकाल में स्तूप तथा गुहा स्थापत्य का विकास हुआ। इस युग में दो युग प्रसिद्ध स्तूपों का निर्माण हुआ। ये हैं - स्तूप धमत्व स्तूप तथा राजगृह स्थित जरासंघ की बैठक। धमेत्व स्तूप 128 फुट ऊँचा है, जिसका निर्माण बिना किसी चबूतरे के समतल धरातल पर किया गया है। इसके चारों कोने पर बौद्ध मूर्तियाँ रखने के लिये ताख बनाये गये हैं, जहाँ तक गुहा स्थापत्य का प्रश्न है यह युग परम्परागत गुहा वस्तु के चरम विकास का द्योतक है। पाँचवीं शती ई. से लेकर 750 ई. तक में ईसा पूर्व की अंतिम सदियों की अपेक्षा अधिक संख्या में गुहाओं का निर्माण हुआ। महायान युग में निर्मित गुहायें अधिक विशाल, विस्तृत, अलंकृत तथा संख्या में अधिक हैं। इस काल में चैत्य गृहों की अपेक्षा, विहार गुहा के निर्माण पर अधिक बल दिया गया। इस समय की बौद्ध गुफायें, अजन्ता, एलोरा, औरंगाबाद एवं बाघ की पहाड़ियों में निर्मित हुईं।
अजन्ता गुहा वास्तु का विकास क्रम सर्वाधिक लम्बा है। यहाँ ईसा की प्रारम्भिक सदियों से 750 ई. तक लगभग 30 गुफाओं का वर्णन है, जिनका निर्माण किया गया। जिनमें 3 चैत्य गृह एवं शेष विहार गुफायें हैं। अजन्ता की लगभग 29-30 गुफाओं में से पाँच प्रारम्भिक काल की हैं। तीन चैत्य गृहों में से 2 चैत्य गृह सं. 9 एवं 10 हीनयान युग में उत्कीर्ण किये गये। विद्वानों की मान्यता है कि 20 विहार एवं एक चैत्य गृह पाँचवीं सदी ई. से सातवीं सदी ई. के मध्य निर्मित हुए। गुहा सं. 19 एवं 26 चैत्य हैं और अन्य विहार गुफायें हैं। हीनयान चैत्य के साथ जो विहार बने थे उनकी उपयोगिता कालान्तर में समाप्त हो गई। महायान युग के चैत्य तथा विहार मिश्रित तैयार हुए जिनका क्षेत्रफल पहले से बढ़ा था। इनका आकार बढ़ाया गया। विहार सं. 7, 11, 6 का निर्माण दूसरे क्रम में हुआ था। संख्या 15 से 20 तक के विहार बनावट में सर्वोत्कृष्ट हैं। गुफा सं. 16 एवं गुफा सं. 17 भित्ति चित्र के लिए सुप्रसिद्ध हैं। अजंता गुफायें अपनी विशिष्टता के लिए प्रसिद्ध है। ये गुफायें अपनी ओर आकर्षित करती हैं।
अजन्ता एवं अन्य स्थलों की गुफाओं को अन्दर से चट्टान खण्ड को काटकर स्तूप निर्माण किये गये हैं। स्तूप हर्मिका एवं छत्रयुक्त हैं। महायान काल में निर्मित गुफाओं में महात्मा बुद्ध एवं बोधिसत्वों की प्रतिमाओं का अंकन मिलता है। गुप्त काल से पूर्व की हीनयान गुफाओं में बुद्ध मूर्तियों का अंकन नहीं देखा जाता। बुद्ध को प्रतीकों के माध्यम से ही अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया। महायान गुफाओं में बुद्ध एवं बोधिसत्वों के अतिरिक्त यक्ष, यक्षिणी, विविध देवताओं एवं नाग प्रतिमाओं का उत्कीर्णन हुआ है। प्रारम्भिक गुफाओं के स्थापत्य में जहाँ सादगी देखी जाती है वहीं गुप्तकालीन गुहा मंदिरों के निर्माण में अलंकरण एवं सजावट की प्रमुखता है। हीनयान विहार चैत्य के साथ सम्बद्ध होने से छोटे होते थे, किन्तु महायान विहारों की विशालता के कारण स्तम्भों का निर्माण आवश्यक है। महायान विहारों में भिक्षुओं के निवास का प्रावधान था। अतएव तीन और कोठरियाँ बनाई गईं, जिसमें भिक्षुओं के शयन हेतु प्रस्तर चौकियाँ बनाई गईं। तद्नुसार विहार के प्रारूप में परिवर्तन किये गये। भिक्षुओं के लिये कोठरियों से बाहर पूजा की व्यवस्था भी आवश्यक थी। अतएव केन्द्रीय कमरे में बुद्ध की प्रतिमा स्थापित की गई। इसके अतिरिक्त दीवारों को भी विविध अलंकरणों द्वारा अलंकृत किया गया। भस्मपात्र की पूजा का समापन हो गया एवं ब्राह्मण मत की भक्ति भावना का बौद्ध मत में प्रवेश हुआ।
विहार - वास्तुकला की दृष्टि से महायान गुफायें विशिष्ट मानी गईं जिन्हें विहार या संघाराम की संज्ञा दी गई। अजन्ता एलोरा, बाघ एवं औरंगाबाद आदि के विहार इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं जिनका निर्माण भिक्षुओं के निवास के लिये किया गया। गुप्तकाल में विहार योजना में सतत्, परिवर्तन एवं परिष्कृत शैली दृष्टिगत होती है। केवल आकृति में ही नहीं बल्कि तल विन्यास की दृष्टि से इस युग में दो-तीन तल के विहारों का निर्माण किया गया। एक पहाड़ी में दो या तीन तल गुफाओं निर्माण तकनीकी की दृष्टि से अपने आपमें एक विशिष्ट उपलब्धि है। तिथिक्रम की दृष्टि से प्राचीनतम विहार अजन्ता की पहाड़ी में निर्मित किये गये। बौद्ध गुफा को स्थापत्य के अतिरिक्त ब्राह्मण परम्परा में भी स्थापत्य की अभिव्यक्ति का अवसर मिला। विदिशा के पास प्रदयगिरि की कुछ गुफाओं का निर्माण भी इसी युग में हुआ। यहाँ की गुफायें भागवत तथा शैवधर्मों से सम्बन्धित हैं। उदयगिरि पहाड़ी से चन्द्रगुप्त द्वितीय के विदेश सचिव वीरसेन का एक लेख मिलता है, जिससे विदित होता है कि उसने यहाँ एक शैव गुफा का निर्माण करवाया था। यहाँ की सबसे प्रसिद्ध बाराह गुहा है। जिसका निर्माण भगवान विष्णु के सम्मान में किया गया था। गुहा के द्वार स्तम्भों को देवी-देवताओं तथा द्वारपालों की मूर्तियों से अलंकृत किया गया है।
मन्दिर निर्माण कला - गुप्तकाल से पूर्व मन्दिर वास्तु के अवशेष नहीं मिलते। मंदिर निर्माण का प्रारम्भ इस युग की महत्वपूर्ण देन कही जा सकती है। इस काल में मन्दिर वास्तु का विकास ही नहीं हुआ बल्कि इसके शास्त्रीय नियम भी निर्धारित हुए। मंदिर निर्माण के उद्भव- का सम्बन्ध व्यक्तिगत देवता की अवधारणा है। भारत में देवपूजा की परम्परा अत्यधिक प्राचीन रही है। प्रायः इसके उद्भव को अनार्य परम्परा में खोजने का प्रयत्न किया गया है। इत्सिंग ने श्री गुप्त द्वारा 'मि-लि- क्या सी-क्या पोनो' (सारनाथ) में चीनी यात्रियों के लिये मन्दिर बनवाये जाने का उल्लेख किया है। इसी प्रकार चन्द्रगुप्त द्वितीय के मंत्री वीरसेन द्वार उदयगिरि गुफा में भगवान शिव के लिये गुफा मंदिर बनवाये गये। कुमार गुप्त के अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने कार्तिकेय के मंदिर का निर्माण करवाया। उसके मन्दसौर अभिलेख से भी सूर्य मन्दिर निर्माण करवाये जाने एवं मंदिरों के जीर्णोद्वार के विषय में ज्ञात हुआ। गुप्तकालीन मंदिरों के अवशेष अनेक स्थानों से प्राप्त हुए जैसे सांची, शंकरगढ़, दहपर्वतया (आसाम), भीतरगाँव, अहिच्छत्र, गढ़वा, सारनाथ, बौद्धगया इत्यादि। इन मन्दिरों को गुप्तकालीन बताया गया।
प्रारूप की दृष्टि से एक गर्भ के मंदिर धीरे-धीरे पंचायतन शैली में परिवर्तित हुए अर्थात् इस प्रक्रिया में पाँच देवों के गृह की स्थापना की गई। साधारणतया ये मंदिर वर्गाकार हैं। इस विकास प्रक्रिया के प्रमाण भूमरा एवं देवगढ़ के मंदिर हैं। आयताकार योजना वाले मंदिर दक्षिण के चैत्य गुफाओं से सम्बद्ध रहे। वस्तुतः पंचायतन योजना वर्गाकार मंदिर का विकसित रूप है। इस प्रक्रिया में गर्भगृह के चारों ओर चार अतिरिक्त देवालय बनाये गये। भूमरा के गर्भगृह के सामने चबूतरों के दोनों कोनों पर देवालय बने हैं। पृष्ठ भाग में गर्भगृह है तथापि इन्हें इसी शैली में रखा जाता है। ये मंदिर देवगढ़ से पूर्ववर्ती हैं।
प्रारम्भिक मंदिर शिखर - प्रारम्भिक मंदिर शिखररहित अर्थात् सपाट छत से आवृत्त थे, किन्तु सपाट छत क्रमशः ऊँची बनाई जाती और गर्भगृह के ऊपर पिरामिडाकार स्वरूप बनता गया। इस प्रक्रिया में कई तल वाले शिखर का विकास हुआ। इस प्रकार मंदिर सप्त एवं नवप्रासाद के रूप में परिवर्तित हुआ। शिखर मूलतः गर्भ पर बनी ऐसी वास्तु रचना है जो क्रमशः कई तल, गवाक्ष, कर्णश्रृंग, शुकनाशा, आमलक, कलश, बीजपूरक ध्वजा से युक्त होता है। इन तत्वों के साथ शिखर की रचना पीठायुक्त अथवा ऊपर की ओर क्रमशः तनु होते हुए भी कोणाकार हो सकती है। सम्भवतः शिखर का विकास मानव निर्मित कई मंजिलों के प्रासादों के अनुकरण पर हुआ। शिखर प्रासाद के विभिन्न तल ऊपर की ओर छोटे होते गये। इसका सर्वोत्तम उदाहरण नचना कुठारा का मंदिर है, जिसमें पहले कक्ष पर दूसरे एवं तीसरे कक्ष (या खण्ड) दिखाई देते हैं। सम्भवत: इसी से आगे शिखर विकास का प्रारम्भ हुआ। आगे जाकर शिखर की बनावट में कई तत्व जुड़े।
शंकरगढ़ - जबलपुर में तिगंवा से तीन मील पूर्व में कुण्डाग्राम में लाल पत्थर का एक छोटा शिव मंदिर है।
मुकुंद दर्रा - राजस्थान के कोटा जिले में एक पहाड़ी दर्रा, जिसे मुकुंद दर्रा कहा जाता है। एक छोटे सपाट छत युक्त स्तम्भों पर खड़ा मंदिर अवस्थित है।
तिगवा - पत्थर से निर्मित एक वर्गाकार सपाट छत का मंदिर है, जिसके सामने चार स्तम्भों पर मण्डप स्थित है।
भूमरा - सतना (मध्य प्रदेश) में भूमरा नामक स्थान में शिव मंदिर का निर्माण पाँचवीं शताब्दी के मध्य हुआ।
नाचना कुठारा - भूमरा के निकट आजमगढ़ के पास नाचना कुठारा में पार्वती मंदिर स्थित है।
देवगढ़ - देवगढ़ (ललितपुर) झाँसी के पास गुप्तकाल के बचे हुये उत्कृष्ट मंदिरों में से एक है, जिसका विस्मयकारी अलंकरण मनमोहक है।
भीतरगाँव - कानपुर के निकट दक्षिण में भीतर गाँव का विष्णु मन्दिर ईंटों से निर्मित किया गया। इसका महत्व ईंट का प्राचीनतम मंदिर होने में नहीं वरन् उस मंदिर में शिखर की उत्कृष्टता सर्वोपरि है।
मूर्तिकला - मूर्तिकला के अन्तर्गत गुप्तकाल में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। गुप्त काल में तीन प्रकार की मूर्तियों का निर्माण किया गया पत्थर, धातु एवं मिट्टी। इस काल में मूर्ति कला के दो महत्वपूर्ण केन्द्र थे। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि गुप्त साम्राज्य के विकास के आरम्भिक दिनों में मथुरा मूर्तिकला का प्रमुख केन्द्र था। यह एक मान्य तथ्य है कि प्रथम कुमारगुप्त के शासनकाल में बनी बुद्ध की मूर्ति, जो मानकुंवर से प्राप्त हुई है, मथुरा से निर्यात की हुई है। मथुरा के बाद काशी - सारनाथ गुप्त कला का केन्द्र रहा है और साथ ही यह भी कहा जाता है कि मथुरा कला की ही एक धारा ने यहाँ जन्म लिया। वस्तुतः मथुरा कला शैली के विकास से बहुत पहले से ही काशी प्रदेश इस कला का केन्द्र रहा है।
सारनाथ में प्राप्त मूर्तियों में बौद्ध, ब्राह्मण और जैन प्रतिमाएं शामिल की जाती हैं। इनमें सर्वाधिक संख्या बौद्ध मूर्तियों की है। संख्या की दृष्टि से दूसरे स्थान पर ब्राह्मण देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं और सबसे कम जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। गुप्तकालीन मूर्तियों का विशेष महत्व मथुरा, सारनाथ, सुल्तानगंज और अनेक अन्य स्थलों से अनन्त मात्रा में उपलब्ध गुप्त भारतीय शैली में निर्मित नमूनों में से है। कुषाणकालीन मूर्तियों में विदेशी आदर्शों का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित है। ऐसा कहा गया है कि संघटी की चुन्नटें गांधार शैली ने उन्हें दी थीं। उन्होंने उसे स्वीकार किया, परन्तु इस रूप में उन्होंने नये सिरे से उन्हें साधा जिससे चुन्नटें तो गायब हो गईं, परन्तु उनकी लहरियाँ शरीर से एकाकार होकर उसमें समा गयीं और लगने लगा कि तन उनके भीतर से झाँक रहा है। परिधान का मात्र आभास रह गया। ध्यान से देखा जाये तो मथुरा केन्द्र की बनी हुई मूर्तियों को छोड़कर, गुप्तकालीन किसी बुद्ध प्रतिमा में वस्त्रों में चुन्नटें नहीं दिखाई गईं। यह भी दृष्टव्य है कि इस काल की मूर्तियों की भौंहे तिरछी न होकर सीधी प्रदर्शित की गयीं हैं। कलाकारों ने भावों की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न मुद्राओं का सहारा लिया। प्रतिभा निर्माण के शास्त्रीय नियमों का पालन किया गया। सुदृढ़ एवं सुन्दर मनोहारी मूर्तियों को बनाया जाने लगा। मूर्ति निर्माण हेतु प्रयुक्त होने वाले पत्थरों में मथुरा कला की अभिव्यक्ति हेतु बलुआ लाल पठार का उपयोग स्थानीय कलाकारों द्वारा किया जाता रहा, किन्तु सारनाथ में मूर्ति निर्माण हेतु सफेद बालूदार पठार का प्रयोग किया गया। सुल्तानगंज से प्राप्त बुद्ध की एक खड़ी मूर्ति ताँबे की है जिसकी लम्बाई फीट है। महात्मा बुद्ध के शीश पर कुछ केश हैं, परन्तु उनके चारों ओर आभामण्डल नहीं है। बुद्ध पारदर्शक वस्त्र से आवृत्त हैं तथा दायाँ हाथ अभय मुद्रा में, बायाँ हाथ आधा नीचे की ओर झुका हुआ है। अँगुलियों के बीच कुछ वस्तुएँ दिखाई देती हैं। मथुरा से प्राप्त विष्णु मूर्ति अपनी स्वाभाविकता और भावुकता में सारनाथ के महात्मा बुद्ध की मूर्ति से समता रखती है। भगवान विष्णु रत्नपंजडित मुकुट पहने हैं, कानों में आभूषण हैं, उनके सुगठित शरीर में पूरा अनुपात है और मुख पर आध्यात्मिक आभा और शांति विद्यमान है।
देवगढ़ के मन्दिर से अनेक सुन्दर मूर्तियाँ प्राप्त हुईं। यहाँ से प्राप्त मूर्ति में भगवान विष्णु जी की मूर्ति है। भगवान ने सिर पर किरीट मुकुट, कानों में कुण्डल, गले में हार, केयूर वनमाला एवं हाथों में कंगन धारण किये हैं। पैरों की ओर माँ लक्ष्मी बैठी हुई हैं। नाभि से निकले कमल पर भगवान शिव-पार्वती हैं। उदयगिरि पहाड़ी पर उत्कीर्ण भगवान विष्णु का वाराह अवतार का बड़ा ही सजीव चित्रण है। इसमें भगवान पृथ्वी को ऊपर की ओर उठाते दिखाये गये हैं। एक वाराह मूर्ति एरण से भी प्राप्त हुई है, जिसका निर्माण मातृ विष्णु के अनुज धन्य विष्णु ने करवाया था। गुप्त कलाकारों ने बुद्ध एवं विष्णु के अतिरिक्त शिव मूर्तियाँ भी निर्मित कीं। गुप्तकालीन अनेक एकमुखी तथा चतुर्मुखी शिवलिंग प्राप्त हुए हैं। इनमें करमदण्डा, मथुरा, सारनाथ, खोह, विलसद उल्लेखनीय हैं। इस काल की अनेक जैन मूर्तियाँ मिली हैं। मथुरा से प्राप्त प्रतिमा में महावीर को पद्मासन में ध्यान मुद्रा में बैठे दर्शाया गया है।
चित्रकला - प्रस्तर मूर्तियों के अतिरिक्त इस काल में पकी हुई मिट्टी की भी छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनाई गईं। इस प्रकार की मूर्तियाँ विष्णु, कार्तिकेय, दुर्गा, गंगा, यमुना आदि की हैं। ये मृण्यमूर्तियाँ पहाड़पुर, राजघाट, मीटा, कौशाम्बी, श्रावस्ती, अहिच्छल, मथुरा आदि स्थानों से * प्राप्त हुई हैं। ये मूर्तियाँ सुडौल, सुन्दर और आकर्षक हैं। मानव जाति के इतिहास में सम्भवतः कला की दृष्टि से अभिव्यक्ति की यह परम्परा सर्वाधिक प्राचीन है। चित्रकला के द्वारा एक तलीय द्विपक्षों में भावों की अभिव्यक्ति होती है। प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर अनुमान है कि शुंग सातवाहन युग में इस कला का विकास हुआ, जिसकी चरम परिणति गुप्त काल में हुई। वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार, 'गुप्त युग में चित्रकला अपनी पूर्णता को प्राप्त कर चुकी थी।' अजन्ता की गुफा सं० 9 व 10 में लिखे चित्र सम्भवतः पुरातात्विक दृष्टि से ऐतिहासिक काल में प्राचीनतम हैं। समय के परिप्रेक्ष्य में अजंता की गुफा सं० 16 में अंकित वाकाटक शासक हरिषेण का अभिलेख महत्वपूर्ण है। बौद्ध चैत्य एवं विहारों में आलेखित चित्रों का मुख्य विषय बौद्ध धर्म से सम्बद्ध है। भगवान बुद्ध को बोधिसत्व या उनके पिछले जन्म की घटनाओं अथवा उन्हें उपदेश देते हुये अंकित किया गया है। अनेक जातक कथाओं के आख्यानों का भी चित्रण है। जैसे- शिवजातक, हस्ति, महाजनक, विधुर, हस, महिषि, मृग, श्याम आदि। बुद्ध जन्म से पूर्व माया देवी का स्वप्न, बुद्ध जन्म, सुजाता द्वारा क्षीर (खीर) दान, उपदेश, राहुल का यशोधरा द्वारा समर्पण आदि बुद्ध के जीवन से सम्बद्ध चित्रों का विशेष रूप से आलेखन किया गया। अजन्ता में पहले सभी गुफाओं में चित्र बनाए गये थे। समुचित संरक्षण के अभाव में, अधिकांश चित्र नष्ट हो गये तथा अब केवल छः गुफाओं (1-2, 9-10 तथा 16- 17) में ही चित्र शेष हैं। इनमें से 16वीं- 17वीं शताब्दी ई. के भित्ति चित्र गुप्तकालीन हैं। सामान्यत: अजंता चित्रों को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं- कथा चित्र, प्रतिकृतियाँ (या छवि चित्र) एवं अलंकरण के लिए प्रयुक्त चित्र।
बाघ चित्रकला - अजन्ता शैली की अखण्ड परम्परा बाघ, बादामी सित्तनवासन और सिगिरिया के गुफा चित्रों में दृष्टव्य है। बाघ गुफाओं के चित्र बुद्ध जीवन व उनके दर्शन के द्योतक हैं। बुद्ध और बोधिसत्व के जीवन-सत्य, समस्त जीव, राजा और भिखारी से लेकर पशु जगत तक के लिये वे पूर्णता के आदर्श प्रस्तुत करते हैं। डॉ. सरोजनी श्रीवास्तव ने 'ट्रेडिशन्स एण्ड रिलीजस बैकग्राउंड ऑफ अजन्ता पेंटिग्स' नामक पुस्तक में लिखा है कि 'अजन्ता की भाँति बाघ की गुफाओं में मानव, वनस्पति तथा पशु-जगत् का चित्रण हुआ है, जो परस्पर एकता और एकरसता के बौद्ध विचारों की पावन धारणा को दृष्टव्य रूप में प्रतिपादित करते हैं।' इन गुफाओं में भगवान बुद्ध को कमल पर आसीन दिखाया गया है। पद्म पर आसीन बुद्ध की प्रतिमा का अंकन सर्वप्रथम गुप्त काल में हुआ जबकि इससे पूर्व कुषाण काल में उन्हें सिंहासन पर बैठा हुआ दर्शाया गया। सत्य प्रकाश जी के अनुसार “बाघ की भाँति बादामी और सित्तनवासन के गुफा चित्रों में अजन्ता शैली की पुनरावृत्ति हुई है। "
बाघ की गुफायें अजन्ता की गुफा सं. 16, 17 और 19 से पूर्व की मानी गई है। इनका समय अनुमानतः पाँचवीं व छठीं शताब्दी माना गया। बाघ में कुल 9 गुफायें हैं। ये गुफायें ग्वालियर राज्य के बाघ नामक ग्राम में बाघोरा नदी के किनारे की पहाड़ियों पर मनोरम व शान्त वातावरण में स्थित हैं। इन गुफाओं में शिल्प चित्र के अद्वितीय उदाहरण हैं व प्रत्येक स्थान पर चित्रकारी होने के प्रमाण मिलते हैं। काल-प्रहार, वर्षा व सुरक्षा के अभाव में ये गुफायें जीर्ण- क्षीण अवस्था को प्राप्त हो चुकी हैं फिर भी वे अपने अन्तराल में प्राचीन कला निधियों के अवशेष छिपाये हुए हैं।
गुप्तकाल में शिला - शिल्प, भवन निर्माण, कला व चित्रकला ने जन जीवन की धार्मिक व सामाजिक परम्पराओं एवं आध्यात्मिक आदर्शों को सफलतापूर्वक निविष्ट किया तथा निरन्तर अपना आकर्षण बनाए रखा। वहीं कला 8वीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते उपेक्षित होने लगी। गुप्तवंश के बाद बहुत से स्वतन्त्र राज्य स्थापित हुए। धीरे-धीरे बौद्ध धर्म का पतन होने लगा। हिन्दू धर्म के विरोध व यवनों के आक्रमण के साथ-साथ सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक विषमताओं ने इस धर्म को और भी क्षति पहुँचाई। फिर भी 8वीं से 10वीं शताब्दी तक एलोरा, एलीफेण्टा आदि हिन्दू मन्दिरों की बाहरी और भीतरी दीवारों, छतों और स्तम्भों पर गुप्तकालीन भित्ति चित्रों की परम्परा चलती रही। कैलाश मन्दिर में अर्द्धनारीश्वर, गंधर्वों तथा अप्सराओं के चित्र हैं। यद्यपि उनके रंग फीके हो गये हैं। फिर भी उनका आकर्षण कम नहीं हुआ है। तत्पश्चात् ताड़ पत्रों एवं कागजों पर लघु चित्रों की परम्परा दिखाई पड़ती है।
अजन्ता, बाघ, बादामी, सित्तनवासन व सिगिरिया के गुफा चित्र आदि कला के ही साक्ष्य प्रमाण हैं, जिनसे प्रेरणा लेकर उन कलाकारों ने अपने व्यक्तित्व को उजागर किया। ये सभी चित्र धार्मिक भावनाओं व उच्च आदर्शों से ओत-प्रोत हैं। उन कलाकारों ने भौतिक संसार से ऊपर उठकर अलौकिक सौन्दर्य की प्राप्ति के लिये सतत् प्रयत्न किये इसीलिये ये चित्रित गुफायें देव - लोक के समान दृष्टव्य हैं। अन्त में यही कहा जा सकता है कि गुप्त वंश को भारत का स्वर्ण-युग कहा गया।
बादामी गुफा - बादामी गुफा के चित्र 578 ई.पू. के माने जाते गये हैं। ये गुफायें महाराष्ट्र- प्रदेश में आइहोल के निकट बादामी नामक स्थान पर स्थित है। इन गुफाओं को चालुक्यों ने बनवाया था। बाघ गुफाओं की भाँति बादामी गुफाओं में अजन्ता शैली का अनुशीलन हुआ है, किन्तु उनके विषय बौद्ध नहीं हैं। यहाँ कुल नौ गुफायें हैं उनमें से तीन ब्राह्मण-धर्म से सम्बद्ध हैं और एक जैन धर्म से। गुफा नं. 4 चालुक्य वंश के महान शासक एवं कला-प्रेमी राजा मंगलेश ने बनवाई थी। गुफा नं. 1 में शिव-पार्वती विवाह व अन्य हिन्दू देवी- देवताओं का गौरवपूर्ण अंकन हुआ है। यहाँ के कलाकारों ने दैवीय अंकन के साथ-साथ सम्बद्ध प्रतीकों, अभिप्रायों एवं कला के मान्यदण्डों का समन्वय करते हुए, आध्यात्मिक विषयों पर उत्कृष्ट चित्रों की रचनायें कर, कला की परिधि को व्यापकता प्रदान की है। बादामी गुफाओं की छतों की चांदनी, स्तम्भों व दीवारों के विभिन्न भागों का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि किसी समय वे स्थल सुन्दर आलेखनों से सुसज्जित रहे होंगे। इन आलेखनों के जो अंश विनष्ट होने से बच गये हैं वे इस बात का ज्ञान देते हैं कि कलात्मक उत्कृष्टता की दृष्टि से बादामी गुफाओं के आलेखन उच्च कोटि के थे। ये कृतियाँ साक्षी हैं कि इनके रचनाकार प्रथम श्रेणी के चित्रकार थे। गुफा नं. 2 में राजकीय उत्सवों व हर्षोल्लास का चित्रण सूक्ष्म- मनोवृत्तियों के अनुरूप हुआ है। राजमहल के एक दृश्य में भाव मग्न नर्तकियों को नृत्य करते हुये दर्शाया गया. है। राज - सिंहासन पर आसीन राजसी युगल नृत्य देखने में आत्म विभोर है। निकट में राजकुमार और सेनानी विराजमान हैं। बायीं ओर कुछ सेविकायें और परिचारिकायें किसी रानी की सेवा में खड़ी प्रदर्शित की गई हैं। ये सभी चित्र प्रायः नष्ट हो चुके हैं, किन्तु उनके अवशेष उस काल विशेष की कला भव्यता प्रदर्शित करने मे पूर्ण सक्षम है।
सित्तनवासनस - मद्रास के निकट पड्डूकोटा नामक स्थान पर सित्तनवासन के गुफा - चित्रों में अजन्ता शैली अपनायी गयी है। यह जैन सम्प्रदाय के सर्वप्रथम चित्र माने गये हैं। इस गुफा का प्राचीन नाम "चित्तुपोसिल" है। इसका अर्थ है 'देवी-देवताओं का विश्राम गृह। इन गुफाओं का समय सातवीं शताब्दी माना गया। यहाँ कमल से पूरित जलाशय में असंख्य रंगीन कमल की कलियों व कमल नालों के मध्य बैल, हाथी, हंस एवं अप्सराओं के अंकन में उन चित्रकारों की चिन्तनशीलता और अपूर्व सृजनशक्ति परिलक्षित होती है। इन चित्रों में रंगों की चमक-दमक व सुन्दरता देखते ही बनती है। इनमें अजन्ता की गुफा सं. 2 के आलेखनों का आकर्षण दिखाई पड़ता है। वेन्जिमन रोलेण्ड ने लिखा है कि, “सित्तनवासन की गुफाओं में चित्रित हाथियों के अंकन में अजन्ता के हाथियों की विद्यमत्ता प्रमाणित होती है।" यहाँ हाथियों का इतना सजीव अंकन हुआ है कि कोई उन्हें देखकर यह नहीं कह सकता कि वे जीवित नहीं हैं।
सरोवरों में स्नान करना हिन्दुओं में आज भी पवित्र माना जाता है। वेदों और पुराणों में सरोवर की पवित्रता के अनेक उदाहरण मिलते हैं। सित्तनवासन के सरोवर में अंकित कमल धारण किये हुए एवं कमल पुष्प एकत्रित करते हुए तीन मानव आकृतियाँ जैन तीर्थकरों की पुष्टि करती हैं। इस सरोवर को पापों को हरण करने वाला एवं पुण्यदायी कहा गया है। महानदी का पुराण में 'चित्रोत्पला' के नाम से उल्लेख मिलता है। उत्पल का शाब्दिक अर्थ - 'नील कमल' और चित्रा 'महाशक्ति' का नाम है। अतएव सित्तनवासन को पद्म क्षेत्र कहना ही उचित है। स्ट्रेला क्रेमिश ने इन चित्रों का उल्लेख 'दक्खिनी चित्र' के नाम से किया है। उनका कथन है कि “सित्तनवासन के तीन सरोवरों को देवताओं ने मोक्ष प्राप्त करने वाले तीर्थकरों के लिये, ये विश्राम गृह निर्मित किये थे।" वहाँ की कला उस काल विशेष की धार्मिक भावनाओं को प्रदर्शित करती है। उनमें हिन्दू, बौद्ध, जैन सभी देवी-देवताओं के चित्र अंकित किये गये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि दैविक प्रतिमाओं के अंकन में कलाकार का उद्देश्य धार्मिक भावनाओं का प्रदर्शन करना था, सौन्दर्य अभिव्यक्ति नहीं। ये चित्र प्राचीन संस्कृति एवं धार्मिक भावनाओं की दृष्टि से अत्यन्त उत्कृष्ट बनाये गये।
सिगिरिया -सिगिरिया की गुफाओं का समय पाँचवीं शताब्दी माना गया है। लंका की चित्रकला के ये सर्वप्रथम एवं प्राचीन चित्र माने गये हैं। इनकी चित्रण शैली अजन्ता से प्रभावित है। इन चित्रों में बौद्ध दर्शन और भगवान बुद्ध के जीवन को प्रदर्शित किया गया है। सम्राट अशोक के समय में बौद्ध धर्म की अपूर्व प्रगति हुई। लंका में यह धर्म लोक धर्म के रूप में स्वीकार किया गया, जिसका प्रभाव वहाँ की कला पर भी पड़ा। सिगिरिया के शिल्प चित्रों में (भगवान बुद्ध की घटनाओं के अंकन में) सर्वत्र आध्यात्मिक भावनाओं का कलात्मक एवं भावात्मक स्वरूप दर्शनीय है। फाह्यान ने अपनी लंका यात्रा के सम्बन्ध में लिखा है कि " सड़कों के चारों ओर बुद्ध की 400 प्रतिमाओं का भव्य प्रदर्शन किया गया है, जो उनके पूर्ण जीवन को उद्घाटित करती हैं।" चित्र सं. 6 (अ) में बादलों के मध्य एक देवी के साथ उसकी दासी थाल में कमल पुष्प लिये हुये है। उनका निचला भाग बादलों में विलीन हो गया है। केशों में गुथे हुये कमल-पुष्पों ने चित्र को अधिक आकर्षक बना दिया है। अजन्ता और बाघ की गुफाओं में बादलों में उड़ते हुये गंधर्वों और अप्सराओं के अनेक चित्र देखे जा सकते हैं। इन चित्रों पर सांची, भरहुत, अमरावती और मथुरा कला का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित है। बौद्ध धर्म एवं दर्शन का इन चित्रों पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा है कि वे युगों-युगों तक आध्यात्मिक प्रेरणा के स्रोत बने रहेंगे।
बौद्ध कला का अभ्युदय सिन्धु घाटी की सभ्यता से हुआ। उसके विकास में निरन्तर, प्रत्येक चरण में सिन्धु घाटी की पारम्परिक धार्मिक प्रवृत्तियाँ, धार्मिक आचार-विचार एवं उस युग के कलाकारों की अनुभूतियों की तीव्रता, अभिव्यंजना और माधुर्य की भावना प्रतिबिम्बित होती है। अजन्ता, बाघ, बादामी, सित्तनवासन व सिगिरिया के गुफा चित्र आदि कला के ही साक्ष्य प्रमाण हैं। जिनसे प्रेरणा लेकर उन कलाकारों ने भौतिक संसार से ऊपर उठकर अलौकिक सौन्दर्य की प्राप्ति के लिये सतत् प्रयास किये। इसलिये ये चित्रित गुफायें देवलोक के समान लगती हैं।
धीरे-धीरे बौद्ध धर्म का पतन होने लगा। हिन्दू धर्म के विरोध व यवनों के आक्रमण के साथ-साथ सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक विषमताओं ने इस धर्म को और भी क्षति पहुँचाई। फिर भी आठवीं से दसवीं शताब्दी तक एलोरा, एलीफैण्टा आदि हिन्दू मन्दिरों की बाहरी और भीतरी दीवारों, छतों और खम्भों पर गुप्तकालीन भित्ति चित्रों की परम्परा चलती रही। कैलाश मन्दिर में अर्द्धनारीश्वर, गंधर्वों तथा अप्सराओं के चित्र आज भी स्पष्ट परिलक्षित हैं। यद्यपि उनके रंग फीके हो गये हैं फिर भी उनमें आकर्षण है और दर्शक को आकृष्ट करने की क्षमता भी। तत्पश्चात् ताड़ पत्रों एवं कागजों पर लघु चित्रों की परम्परा स्पष्ट दृष्टिगोचर है।
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